दोहा छंद-माँदी भात

विषय-माँदी भात

बर बिहाव के शान ए,लाड़ू मोतीचूर।
खावव संगी खोज के,मौका हे भरपूर।।

काबर माँदी भात के,मनखे करथें साध।
हर समाज के रीत ये,लादय कर्ज अबाध।।

बिना कलेवा होय नइ,काबर माँदी भात।
कतको मनखे ला करय,जीते जी आघात।।

निःपुरतः बर बोझ ए,बड़हर बर ए शान।
हर समाज ये जान लव,खोवत कोन परान।।

मरनी म घलो खाव जी,चोग्गर सादा भात।
बिना कलेवा तान के,खावव तातेतात।।

जइसन पुरे खवाव जी,अइसन होय रिवाज।।
तभ्भे बनही विश्व मा,सुघ्घर संत समाज।।

जीतेन्द्र निषाद "चितेश"
सांगली,गुरुर,जिला-बालोद

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