सम्मान
विषय-- *सम्मान*
हरिगीतिका छंद
सम्मान खातिर आदमी करथे उदिम सरलग अबड़।
अवसर मुताबिक तन जथे सकला जथे जइसे रबड़। ।
सम्मान हा सिर मा चघय कतकोन के बनके नशा।
सम्मान के लालच बिगाड़य आदमी मन के दशा। ।
सम्मान के भूखा सबो रहिथे जगत के रीत जी।
कतको सुनावय मान खातिर चापलूसी गीत जी।।
गदहा ल बोलय बाप रगड़य नाक कतको द्वार मा।
बस मान जइसे भी मिलय थोड़ा-बहुत संसार मा।।
लेकिन यहू सच ए टिकय नइ कभू झूठा मान हा।
नइ मिलय फोकट मा कभू कोनो ल सत सम्मान हा।।
सम्मान ला कोनो बिसाये नइ सकय बाजार ले।
सम्मान मिलथे आदमी ला काम ले व्यवहार ले। ।🙏
दीपक निषाद--लाटा (भिंभौरी)-बेमेतरा
Comments
Post a Comment