सरसी छंद
सरसी छंद-गुरु
सदगुरु बिन नइ मिलै ज्ञान हा,कइथें वेद पुरान।
फेर कार कलजुग मा गुरु मन,बनत हवयँ शैतान।
कोनो जग मा बापू बनके,कोनो भैयाराम।
करत हवयँ गुरु सदगुरु बनके,फकत नाँव बदनाम।
स्वार्थी गुरु संगत ले होही,कइसे बेड़ापार।
चिटिको गुनव मोर हाँका ला,रोज्जे तीन जुवार।
हमरो भीतर घलो समाहे,राग-द्वेष अभिमान।
इंँकर संग मा रहिके गुरु के,कइसे करन बखान।
मानवता के गुण मनखे मा,जे गुरु भरय अपार।
वो गुरु ला बइहा चेला हा,खोजै बारंबार।
आदिकाल के गुरुकुल गुरु मन,मन बइला ला फाँस।
नेकी नंगत करय जगत मा,जस बगरै आकास।
कलजुग के खपचलहा गुरु मन,इंद्रिय कसैं लगाम।
तभ्भे अमर रही जग मा गुरु,अउ सदगुरु के नाम।
बने करम ले जीव-जगत के,करही गुरु उद्धार।
गुरु के महिमा मनखे गावत,करही जय-जयकार।
जीतेन्द्र निषाद 'चितेश'
सांगली,जिला-बालोद
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