दोहा हरि भजन
दोहा जिनगी भर मनखे परे,तोर-मोर के फेर । करबे कब गा हरि भजन,होवत अब्बड़ बेर।। कतको पर के घेंच ला,काट बने धनवान। धन-दौलत ला ही असल,मानय वो भगवान।। कँगला मनखे आन बर,दे दे हिरदे चान।। लाँघन भूखन कब करय,वोहा हरि के ध्यान।। तिसना-हिजगा मा मरे,अतका हर इंसान। नंगत धन ला जोड़ के,कभू करय नइ दान।। दया-मया बिन जीव हा,कहाँ परम सुख पाय। दुख के नद मा बूड़ के,जिनगी भर पछताय।। ए माया संसार मा,हवय वैष्णवी जोर। जीना हवय यथार्थ मा,इह माया के खोर।। सदा निखारय वैष्णवी,हमर सबो संबंध। दया-मया जागृत करय,अइसे करय प्रबंध।। सांसारिक स्वार्थी मया,करय अबड़ नुकसान। भक्ति मार्ग बर ए हरे,बाधक असुर समान।। हरि दरसन ला पाय बर,झन परिवार तियाग। धर्म शास्त्र कइथे घलो,घर मा साध विराग।। वेद व्यास भगवान शिव,ऋषि वशिष्ठ कुलवंत। अउ अत्री महराज हा,रिहिन गृहस्थी संत।। मोह-मया मा सब फँसे,कोन करय हरि ध्यान। समय मिलय मा जप करय,संत उही ला मान।। धन-दोगानी बर पड़े,काबर हर इंसान। राम नाम धन सार हे,राम नाम धन जान।। मया करव सब राम ले,राम नाम हे सार। बिना राम के हे कहाँ,जिनगी के आधार।। राम हरे नाविक बड़े,नाम जपे ले आय। भवसागर के धाम ले,बेड़ा पार लग